फिल्में समाज का सिर्फ अहम हिस्सा हैं, ये सिर्फ हमारा मनोरंजन नहीं करती बल्कि हमें बहुत कुछ सिखाती भी हैं। जीवन की असंख्य घटनाओं एवं बनते-बिगड़ते संबंधों आदि महत्वपूर्ण विषयों पर बनी फिल्में हमें सिर्फ सोचने के लिए प्रेरित नहीं करती बल्कि जीवन को जीने का सलीका भी सीखा जाती हैं। अन्य कला माध्यमों से विशिष्ट यह विधा तकनीक से लैश दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यमों में होने की वजह से देखने वालों को ज्यादा प्रभावित करती है।
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| चित्र : गूगल से साभार |
एक समय सिनेमा मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम था। फैंटेसी,एक्शन,लटके -झटके, गानों से भरपूर फिल्में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाती थीं। टिकट की लंबी कतारें। ब्लैक में टिकट खरीदने का जुनून सब कुछ था।पर हाल के वर्षों में फिल्म और दर्शक दोनों के स्वाद में थोड़ा बदलाव आया है। दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा अब जीवन के निकट के विषयों पर बनी फिल्मों में रूचि लेने लगा है।
सबसे अच्छी बात यह है कि इन दिनों भारत में बनने वाली कई फिल्में विशुद्ध रूप से जीवन के ज्यादा करीब हैं। ऐसी फिल्मों को पर्दें पर या जादू के पिटारे को खोलते हुए मोबाइल पर या किसी भी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इसे देखना बेहद दिलचस्प होता है। हमारी दिलचस्पी तब और बढ़ जाती है जब फिल्म समसामयिक मुद्दे पर बनी हो। इन दिनों जिस तरह से लेट मैरिज का ट्रेंड चला है और उस लेट मैरिज में क्या संभावनाएं और क्या समस्याएं हैं, इन दोनों पक्षों पर ‘आप जैसा कोई’ फिल्म में बहुत प्रभावी ढंग से फिल्माया गया है। खासकर जब दो मैच्योर और वर्किंग लोग शादी करने का सोचते हैं तो क्या होता है, इस फिल्म में देखना दिलचस्प है।
यह फिल्म कई अवसरों पर एक नैरेटर की तरह हमें यह बताती है कि ‘जितने तुम उतनी मैं’ बस इतना ही होना होता है प्यार में। प्यार बहुत कुछ नहीं चाहता है बस वो इतना चाहता है कि जिन गलतियों के लिए आप खुद को माफ कर सकते हैं उन गलतियों के लिए आप सामने वाले को भी माफ कर दें। जब उसके साथ कोई भी खड़ा न हो उस समय आप खड़े रहें और उसे समझे जिसे आप प्यार करते हैं। आप प्यार में उसे मुक्त करें न कि उसे बांध कर रखें। किसी भी रिश्ते में लिमिट तय करने की बजाय उसकी खुशियों में और उसके गम में साथ रहें। प्यार बस हर पल में साथ रहना चाहता है। हाल ही में विवेक सोनी के निर्देशन में नेटफिलिक्स पर रिलीज हुई ‘आप जैसा कोई’ फिल्म कई महत्वपूर्ण मुद्दों को एक साथ हमारे सामने प्रस्तुत करती है। हालांकि हर फिल्म किसी न किसी सामाजिक मुद्दे या प्रश्नों के साथ आती है और समाज के ऐसे मुद्दों पर गंभीरता से सोचने के लिए उकसाती भी है। 'आप जैसा कोई' फिल्म में भी एक साथ कई मुद्दों -वर्जिनिटी, पुरूष प्रधान समाज की सोच, बढ़ती उम्र में हो रही शादियों की परेशानियां और स्त्री स्वतंत्रता को प्रमुखता से उठाया है। यह फिल्म हमें बताती है कि कहने को तो हम 21वीं सदी में गुजर-बसर कर रहे हैं लेकिन आज भी पुरूष सत्तात्मक समाज की सोच नहीं बदली है। आज भी पुरूषों के लिए लड़कियों की वर्जिनिटी बहुत बड़ा मुद्दा है जिसे इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। शादी के लिए जब लड़की की तलाश की जाती है ,तब लड़के के मन में यह इच्छा होती है कि उसकी होने वाली पत्नी वर्जिन हो। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्जिन लड़कियां ही खोजी जाती हैं लड़के नहीं।
इस फिल्म की शुरूआत एक संस्कृत टीचर श्रीरेणु त्रिपाठी के जीवन पर आधारित है। इसमें दिखाया गया है कि शिक्षक की भूमिका निभा रहे आर .माधवन अधेड़ उम्र में विवाह के लिए लड़की खोज रहें हैं लेकिन अधिकतर लड़कियां या तो उनकी उम्र की वजह से उनसे विवाह करने से मना कर देती हैं या फिर संस्कृत के शिक्षक होने की वजह से उन्हें लगता है कि श्रीरेणु बहुत बोरिंग होंगे। यह भी एक बड़ी बात है कि संस्कृत या हिंदी पढ़ने या पढ़ाने वाले लोगों के संदर्भ में यह सोच है कि वह पढ़ाता क्या होगा या पढ़ता क्या होगा। उन्हें नहीं मालूम की हिंदी, संस्कृत या किसी भी विषय का अपना एक इतिहास है जिसे पढ़ा या समझा जाना बेहद जरूरी है। दूसरी बात की ऐसे विषयों को पढ़ने या पढ़ाने वालों को लोग बोरिंग समझते हैं। मुझे एक घटना याद आ रही है चूंकि मैं खुद भी हिंदी की विद्यार्थी रही हूं इसलिए मुझे मालूम है कि लोग हिंदी विषय को लेकर किस तरह से सोचते हैं। मैंने जब ग्रेजुएशन में हिंदी ऑनर्स लेकर पढ़ाई शुरू की तो कुछ लोगों का कहना था हिंदी पढ़कर क्या होगा। उसमें पढ़ते क्या हैं। ऐसे कई सवाल उन सभी ने एक साथ दागे थे। आज जब मैं खुद एक कॉलेज में पढ़ाती हूं तो अपनी पहली क्लास में सबसे पहले हिंदी पढ़कर क्या होता है और क्या हो सकता है बताती हूं । हिंदी में रोज़गार और आगे बढ़ने की संभावनाओं को देखकर विद्यार्थी दंग रह जाते हैं। मैं यह गर्व से बताती हूं कि अगर आपकी भाषा ठीक है और आप मेहनत करते हैं तो आप जीवन में जरूर सफल होंगे।
वैसे इस फिल्म में आगे यह भी दिखाया गया है कि अमूमन जब हम लेट मैरिज करते हैं तो लड़कों को लड़की खोजने और लड़कियों को लड़के खोजने में दिक्कत होती है। ऐसी स्थिति में वे सोशल साइट्स या अन्य प्लेटफार्मों पर मन बहलाने का विकल्प तलाशते हैं। संस्कृत शिक्षक भी अपने अकेलेपन से निजात पाने के लिए एक ऐप्प की ओर रुख करता है।दरअसल शादी के लिए कोई बात नहीं बनती देख श्रीरेणु के मित्र नमित दास (दीपक) उन्हें एक डेटिंग ऐप्प पर लड़कियों से बात कर दिल बहलाने की सलाह देता है और श्रीरेणु इस सलाह को मानकर एक लड़की से बात भी करने लगता है।आजीवन लड़कियों से दूर रहने वाला जब पहली बार अजनबी लड़की से बात करता है तब उसकी धड़कनें तेज हो जाती हैं और मन में तरह-तरह के ख्याल हिचकोले मारने लगते हैं।
इसी दौरान श्रीरेणु को उसकी भाभी कुसुम त्रिपाठी (आयेशा रजा) कोलकाता में रहने वाली मधु बोस (फातिमा सना शेख) से मिलाती है जो कोलकाता में फ्रेंच पढ़ाती है। जमशेदपुर में रहने वाला श्रीरेणु जब कोलकाता की मधु बोस से मिलता है तो उसे यकीन ही नहीं होता कि इतनी पढ़ी-लिखी सुंदर लड़की ने उससे शादी के लिए हां कैसे कर दिया। वह सोचता है जरूर इसके अफेयर रहे होंगे या इसमें कोई गड़बड़ी होगी।
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| चित्र : गूगल से साभार |
हालांकि इस फिल्म में कोलकाता की मधु बोस के माध्यम से फिल्मकार ने आज की आधुनिक लड़कियों की तरफ और खासकर अपने फैसले खुद लेने वाली लड़कियों के जीवन की ओर संकेत किया है। मधु बोस एक बंगाली परिवार में पली-बढ़ी है। अमूमन बंगाली परिवार के लोग ज्यादा खुले विचार वाले होते हैं। पुरुषों के साथ बैठना,खाना-पीना और अपने विचार साझा करना उनके जीवन का अहम हिस्सा होता है। वहीं श्रीरेणु के परिवार में महिलाओं को जॉब तक करने की अनुमति नहीं है। श्रीरेणु की भाभी क्लाउड किचेन खोलना चाहती है लेकिन इस पर उसके भैया कहते हैं कि तुम चुल्हे में आग लगाओं मेरे पैसे में नहीं और बात को टाल जाते हैं। वह अपनी बेटी को भी बार-बार घर के काम सीखने को कहते हैं जबकि वह पढ़ने में अच्छी है और उसे जॉब प्लेसमेंट भी मिल रहा है लेकिन उसे नौकरी करने की अनुमति नहीं मिलती है। फिल्म में इन दोनों घरों में महिलाओं की स्थिति एवं अंतर को बखूबी दिखाया गया है।
फिल्म में ट्वीस्ट तब आता है जब श्रीरेणु को शक होता है कि डेटिंग एप पर रोमांटिक बात करने वाली लड़की की आवाज और मधु बोस की आवाज एक जैसी है। वह इस बात की पुष्टि करने के लिए मधु से पूछता है और जब मधु इस बात को स्वीकार कर लेती है कि उसने भी एक समय अपने टूटे दिल को बहलाने के लिए इस डेटिंग ऐप पर अकांउट बनाया था। मधु बोस की यह सहज स्वीकारोक्ति श्रीरेणु को बर्दाश्त नहीं होती। पुरूष सत्तात्मक समाज किस प्रकार से सोचता है इसका उदाहरण इस घटना के माध्यम से निर्देशक दिखाना चाहते हैं कि दोनों एक ऐप पर एक दूसरे से बात कर रहे थे, लेकिन बात करने का परिणाम यह हुआ कि इससे स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाए गये जबकि श्रीरेणु ने खुद को कुछ नहीं कहा। दोनों प्रेम में थे एक दूसरे को स्वीकार कर आगे बढ़ सकते थे लेकिन पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वाले श्री रेणु को यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कि उसकी होने वाली पत्नी किसी डेटिंग ऐप पर किसी से बात करें। जबकि वह खुद भी उस ऐप पर वही काम कर रहा था। इसी बात पर श्रीरेणु मधु से सगाई के बाद शादी करने से मना कर देता है। इसके बाद दोनों परिवारों के बीच तकरार को दिखाया गया है जो एक फिल्मी ड्रामा में होता है । इसके अलावा भी कई ऐसी छोटी-छोटी घटनाएं दर्शकों के सामने आती हैं ,जो कई अनछुए पहलुओं को हमारे सामने रखती है।
दरअसल हमारे समाज में शुरू से स्त्रियों की जिस छवि को देखने की कोशिश की जाती रही है, वह है घरेलू , सहनशील, चरित्रवान और समर्पित स्त्री की। सबसे पहले महिलाओं के लिए जरूरी है - घर का काम-काज सीखना ।जबकि घर के घरेलू कामकाज का संबंध पुरूष के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना एक स्त्री के लिए। लेकिन हमारा समाज घर के काम-काम की ज़िम्मेदारी महिलाओं के ऊपर छोड़ देता है। नतीजन होता यह है कि महिलाएं अगर वर्किंग हैं तब भी उन्हें काम से लौट कर वापस काम पर ही लौटना पड़ता है। हालांकि कुछ सालों में यह परिदृश्य थोड़ा बदला जरूर है ।अब कुछ पुरुष भी किचेन में महिलाओं का हाथ बंटाते हैं।यह हमारे समाज की विडंबना है कि बचपन से लड़कों को यह नहीं सिखाया जाता है कि तुम घर का काम सीख लो आगे जरूरत पड़ेगी । जबकि एक लड़की को बचपन से यही सुनाया और सिखाया जाता है कि घर का काम सीख लो ससुराल में करना पड़ेगा। फिल्म में कई जगहों पर ऐसे दृश्य देखने को मिलेंगे।
फिल्म के अंत में श्रीरेणु का मेल इगो थोड़ा शांत होता है और फिर वह मधु बोस को एक और मौका देने की सोचता है और उससे कहता है कि वह उसे सबकुछ अलाऊ करेगा, पर लिमिट में। इस पर मधु बोस का जवाब स्वाभिमान और अपनी स्वायत्तता से भरा होता है। वह बहुत आत्मविश्वास के साथ एक महत्वपूर्ण बात कहती है -
'प्रेम हमें बांधता नहीं है, न ही स्वामितत्व का भाव रखता है ।बल्कि वह जितनी मैं उतनी तुम की भावना में व्यक्त होता है ।'
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर आप प्रेम में लिमिट तय करने लगेंगे या शर्ते रखेंगे तो वह प्यार नहीं बल्कि समझौता होगा जो इन दिनों के रिश्तों में दिखाई पड़ता है। प्रेम बस आपसे प्रेम की उम्मीद करता है और प्रेम को दूसरे की स्वायत्तता और स्वीकार्यता के साथ ही हासिल किया जा सकता है।हम जब उसे किसी शर्त से हासिल करने की कोशिश करेंगे तब प्रेम अपनी स्वाभाविकता खो देगा।इस संदर्भ में कबीर दास का यह कथन याद करना चाहिए " प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए। राजा प्रजा जो ही रुचे, सीस दे ही ले जाए। "वैसे इस फिल्म को भी एक हैप्पी एंडिंग के साथ समाप्त किया गया है। इस फिल्म के गाने कर्णप्रिय और लोगों के बीच काफी पॉपुलर हैं। सभी कलाकारों की एक्टिंग कमाल की है।सिनेमाटोग्राफी लाजवाब है। साउंड इंफेक्ट भी प्रभावशाली है।कुछ खामियों के साथ कम बजट में बनने वाली यह महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है।
संपर्क : मधु सिंह, प्राध्यापिका
हिंदी विभाग, खुदीराम बोस सेंट्रल कॉलेज, कोलकाता
madhucute6@gmail.com


बहुत बढ़िया और सारगर्भित समीक्षा दी
ReplyDeleteआपने रोचकता के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण जानकारी दी.. हार्दिक शुभकामनाएंँ
ReplyDeleteबहुत रोचक और सारगर्भित फिल्मी समीक्षा बहुत दिनों के बाद पढ़ने को मिली। धन्यवाद मधु। इस फिल्म को मैंने भी देखा है, इसलिए इसमें वर्णित सभी घटनाओं को को-रिलेट कर पा रही हूं।
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